हम सभी भारतीय सदियों तक चले अंग्रेज़ो के राज़ के बारे में जानते है। और हमे सालो चली उस गुलामी का भी एहसास है। क्योकि हमारी पूर्व पीढ़ी ने बहुत ही हिम्मत करके उनके ज़ुल्म सहे है। और शुरुआत से ही अंग्रेज़ो ने भारत से जाने के बाद भी भारत में किसी न किसी तरीके से अपना स्थापत्य करने का प्रयास करते है। और ये कहाँ तक सही है, ये आप भी समझ ही सकते हो। क्योकि अब भले ही भारत आज़ाद है, लेकिन किसी न किसी विदेशी कम्पनी का अपने देश में ज्यादा व्यापार करना गलत तो नहीं है, लेकिन हमारी देसी कम्पनी का पीछे रह जाना भी तो सही नहीं है। और आज हम जिस मोहनलाल चौहान भारतीय कम्पनी की सफलता की कहानी आपके लिए लाये है, वह बहुत खास है। क्योकि यही वो कम्पनी है जो कि विदेशी कम्पनी पर भारी पड़ गयी गयी थी आईये जानते है, पार्ले कम्पनी की सफलता की कहानी के बारे में।
छोटे से गाँव की है ये कहानी
ये बात उस वक़्त की है, जब साल 1900 दशक में भारत पहले से ही गुलामी कै बाद मिली आज़ादी के सपने को संजोने लगा था। आगे बढ़ रहा था। ऐसे में ही गुजरात का एक छोटा लड़का जिसकी उम्र कुछ 12 साल थी। वह काम ढूंढने की तलाश में मुंबई गया था। और सिलाई सीखने की चाह में बाहर निकल पड़ा था। उसने अपने गुण को काफी निखार भी लिया था।और उसने वहीं बंबई में ही एक छोटी सी दुकान भी खोली थी। उसका सिल्क का काम चलने लगा और देखते ही देखते उसने D Mohanlal & Co and Chhiba Durlabh, मोहनलाल की शादी के बाद उसके 5 बेटे थे मानेक लाल, पीतांबर, निरोत्तम, कांतिलाल और जयंतीलाल। जिन्हे मोहनलाल ने कुछ न कुछ काम सिखाया था।
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मोहनलाल चौहान शुरुआत हुई “हाउस ऑफ़ पार्ले” की
मोहनलाल चौहान के बेटो ने उसे कुछ अन्य व्यापार करने की सलाह दी थी। जिसके बाद मोहनलाल ने कन्फेक्शनर्स के काम में अपना हाथ आज़माया। और जर्मनी से काम सीखकर आये। और फिर शुरुआत की हाउस ऑफ़ पार्ले की। और इसके कुछ समय के बाद उन्होंने बिस्किट्स बनाए। जो कि “पार्ले ग्लुको” के नाम से भारत के व्यापार बाज़ार में भी उतारे गए थे। आज पार्ले स्वयं में एक नाम बन गया है। और ब्रांड है।
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